1930 से 1947 का कालखंड भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का सबसे निर्णायक, उग्र और संगठित चरण था। इस युग में भारत ने केवल प्रतिरोध नहीं किया, बल्कि संगठित जन-क्रांति, राजनीतिक नेतृत्व और वैचारिक दृढ़ता के बल पर ब्रिटिश साम्राज्य को चुनौती दी। इस पूरी यात्रा में आर्य समाज की वैदिक चेतना और श्यामजी कृष्ण वर्मा की अंतरराष्ट्रीय रणनीति ने उस आधारशिला का कार्य किया, जिस पर भारत की स्वतंत्रता की इमारत खड़ी हुई।
महात्मा गांधी ने 12 मार्च 1930 को साबरमती से दांडी तक 241 मील की यात्रा कर ब्रिटिश नमक कानून को तोड़ा। यह आंदोलन जन-जन की भागीदारी का प्रतीक बना। देशभर में आर्य समाज की शाखाओं और DAV संस्थानों ने इस आंदोलन में सक्रिय भूमिका निभाई, अपने छात्रों, शिक्षकों और अनुयायियों को सत्याग्रह में सम्मिलित होने के लिए प्रेरित किया।
23 मार्च 1931 को इन तीन युवाओं को फाँसी दी गई। इनके विचारों में आर्य समाज की गूँज थी—जहाँ धर्म और राष्ट्र को एक माना गया, और त्याग को सर्वोच्च कर्तव्य। ‘इंकलाब जिंदाबाद’ अब केवल नारा नहीं, आत्मिक शपथ बन चुका था।
ब्रिटिश सरकार ने भारत सरकार अधिनियम पारित किया, जिससे प्रांतीय स्वशासन का मार्ग प्रशस्त हुआ। आर्य समाज ने इस अवसर का उपयोग कर राष्ट्रवादी शिक्षा और सामाजिक चेतना को और अधिक बल दिया। स्वामी श्रद्धानन्द की विचारधारा और उनके शिष्यों के प्रयासों से कई स्थानों पर वैदिक गुरुकुल स्वतंत्रता का जनमंच बन चुके थे।
ब्रिटिश सरकार ने बिना भारतीय सहमति के भारत को युद्ध में झोंक दिया। परिणामस्वरूप जनाक्रोश फूट पड़ा। इसी समय श्यामजी कृष्ण वर्मा, जो जिनेवा में रहकर 'Indian Sociologist' के माध्यम से वर्षों से भारतीय विचारधारा का प्रचार कर रहे थे, उनके लेख और विचार क्रांतिकारी संगठनों के बीच वैचारिक मार्गदर्शक बने। इंडिया हाउस में सावरकर, मदनलाल ढींगरा जैसे शिष्यों की पीढ़ियाँ भारत में स्वतंत्रता आंदोलन के बौद्धिक योद्धा बन चुकी थीं।
8 अगस्त 1942 को "अंग्रेज़ो भारत छोड़ो" का उद्घोष गूँजा। गांधीजी को गिरफ्तार कर लिया गया, पर आंदोलन पूरे भारत में फैल गया। आर्य समाजियों, विद्यार्थियों, शिक्षकों, और युवा वैदिक कार्यकर्ताओं ने भूमिगत नेटवर्क के माध्यम से क्रांति को जीवित रखा। DAV कॉलेजों में पढ़ने वाले हजारों छात्र इस आंदोलन के सक्रिय सिपाही बने।
1946 में बॉम्बे में रॉयल इंडियन नेवी में हुआ विद्रोह ब्रिटिश सत्ता की जड़ें हिलाने वाला था। यह एक स्पष्ट संकेत था कि अब भारत का सैनिक भी जाग चुका है। आर्य समाज के अनुयायी इस समय तक देशभर में धार्मिक जागरण के साथ-साथ देशभक्ति के दीप जला चुके थे।
15 अगस्त 1947 को भारत स्वतंत्र हुआ, परन्तु इसका मूल्य था विभाजन की पीड़ा। लाखों लोग उजड़ गए। ऐसे संकट की घड़ी में आर्य समाज ने शरणार्थियों के लिए राहत शिविर, भोजन, चिकित्सा और शिक्षा की सेवा में अग्रणी भूमिका निभाई। विशेषतः स्वामी श्रद्धानन्द, लाला लाजपत राय और उनके अनुयायियों की सेवा परंपरा को इन दिनों में समाज ने सजीव रूप में देखा।
1930 से 1947 का स्वतंत्रता संग्राम केवल राजनीतिक आंदोलन नहीं, बल्कि एक आध्यात्मिक, वैचारिक और सांस्कृतिक पुनर्जागरण था, जिसमें आर्य समाज की वैदिक ज्योति, श्यामजी कृष्ण वर्मा की अंतरराष्ट्रीय क्रांतिकारी दृष्टि, और स्वामी श्रद्धानन्द, लाला लाजपत राय, और सैकड़ों अज्ञात सेवकों के योगदान ने मिलकर भारत को आत्मनिर्भर और आत्मगौरव से परिपूर्ण राष्ट्र बनने का आधार दिया। यह युग सिखाता है कि स्वतंत्रता केवल शासन परिवर्तन नहीं, बल्कि चेतना परिवर्तन की परिणति है।
1857 का वर्ष केवल एक सैनिक विद्रोह नहीं था, बल्कि यह भारत की आत्मा का जागरण था- जिसके बीज सनातन परंपरा के साधु-संन्यासियों, अखाड़ों, आश्रमों और तपस्वियों ने वर्षों पूर्व बो दिए थे। स्वामी ओमानन्द, पूर्णानन्द, विरजानन्द और महर्षि दयानन्द सरस्वती जैसे तपस्वी योद्धाओं ने यह समझ लिया था कि भारत की स्वतंत्रता केवल शस्त्रों से नहीं, चेतना, शिक्षा और संस्कृति के पुनरुद्धार से ही संभव है।
महर्षि दयानन्द सरस्वती, जिन्होंने मथुरा में स्वामी विरजानन्द से राष्ट्रधर्म की दीक्षा ली, ने आर्यावर्त को पुनः जागृत करने का संकल्प लिया। उन्होंने भारत के हर कोने में यह मंत्र फैलाया- "धर्म-रक्षा ही राष्ट्र-रक्षा है।" 1875 में आर्य समाज की स्थापना के साथ ही उन्होंने एक वैचारिक क्रान्ति का सूत्रपात किया, जिसने वेदों, स्वाधीनता, सामाजिक समता और आत्मगौरव को एक साथ जोड़ दिया।
उनके प्रमुख शिष्यों- स्वामी श्रद्धानन्द, लाला लाजपत राय, श्यामजी कृष्ण वर्मा, पं. रामप्रसाद बिस्मिल, वीर सावरकर, स्वामी दयानंद सरस्वती के भावी वैचारिक उत्तराधिकारी भगत सिंह- इन सभी ने उनकी वैदिक चेतना को क्रांतिकारी ऊर्जा में बदल डाला। गुरुकुल कांगड़ी और DAV संस्थान केवल शैक्षिक केंद्र नहीं रहे, बल्कि वे भारत के राष्ट्रनिर्माण के संस्कार केंद्र बन गए।
1905 से 1930 के बीच भारत में बंगाल विभाजन, स्वदेशी आंदोलन, और असहयोग जैसे आंदोलनों से जनचेतना बलवती हुई। श्यामजी कृष्ण वर्मा ने लंदन से 'Indian Sociologist' और India House के माध्यम से क्रांति की अंतरराष्ट्रीय शाखा का बीजारोपण किया। उनके शिष्य मदनलाल ढींगरा और वीर सावरकर ने विदेशी धरती पर भारत माता की जय के उद्घोष से साम्राज्य की नींव को हिला दिया।
1920 के बाद, आर्य समाज के विद्यालयों और गुरुकुलों से प्रेरित युवाओं ने काकोरी कांड (1925), सांडर्स वध (1928), असेम्बली बम कांड (1929) जैसे ऐतिहासिक क्रांतिक कार्य किए। भगत सिंह और उनके साथियों के विचारों में ‘सत्यार्थ प्रकाश’ और ऋग्वैदिक साहस की स्पष्ट छाया दिखती है।
1930 में दांडी यात्रा, 1942 का भारत छोड़ो आंदोलन, और 1946 का नौसेना विद्रोह- ये सब स्वतंत्रता संग्राम की जनक्रांति की पराकाष्ठा के प्रतीक थे, जहाँ आर्य समाज के शिक्षार्थी, कार्यकर्ता और स्वयंसेवक भूमिगत क्रांति के मौन संचालक बने रहे।
15 अगस्त 1947 को भारत ने राजनीतिक स्वतंत्रता पाई, किंतु यह स्वतंत्रता सांस्कृतिक और वैदिक चेतना के पुनरुत्थान से पूर्ण हुई। विभाजन की वेदना में भी आर्य समाज के सेवकों ने शरणार्थियों के लिए भोजन, चिकित्सा, शिक्षा और सुरक्षा प्रदान कर यह सिद्ध किया कि उनका राष्ट्रवाद केवल भाषणों तक सीमित नहीं, बल्कि सेवा और त्याग की जीवंत परंपरा है।
1857 से 1947 तक का स्वतंत्रता संग्राम केवल एक राजनीतिक संघर्ष नहीं, बल्कि सनातन भारत की आत्मा, वेदों की वाणी और आर्य विचार की धारा का पुनरुद्धार और संगठन था। स्वामी दयानन्द सरस्वती इस संग्राम के अदृश्य शिल्पी थे, जिनकी विचारधारा ने क्रांति को वैचारिक रूप, बलिदान को धर्म, और स्वराज्य को राष्ट्रधर्म में बदल दिया।
यह गाथा हमें सिखाती है कि जब भारत के संन्यासी, विद्यार्थी और सेवक एक विचार, एक वेद और एक लक्ष्य के लिए एकजुट होते हैं, तब भारत केवल जागता नहीं, बल्कि उठ खड़ा होता है- अविजित, अदम्य और अमर।