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“मैं अन्याय और अत्याचार के विरुद्ध अंतिम साँस तक संघर्ष करता रहूँगा।”

वीर सुरेन्द्र साईं

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“हमारे रक्त की हर बूंद इस धरती को आज़ाद करवाने के लिए गिरेगी।”

बाबू अमर सिंह

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“मैं मर सकता हूँ, लेकिन अंग्रेज़ी हुकूमत के सामने सिर नहीं झुका सकता।”

तात्या टोपे

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“मैं झाँसी की रानी नहीं, उसकी छाया हूँ - दुश्मन के सामने खड़ी हूँ, डरकर नहीं, लड़कर मरने के लिए।”

झलकारी बाई

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“हम गोंड हैं, झुकना नहीं जानते - आज़ादी के लिए जान भी दे देंगे।”

रामजी गोंड

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“क्रांति की शुरुआत केवल बंदूक से नहीं, बल्कि मन की स्वतंत्रता से होती है।”

वासुदेव बलवंत फड़के

1858 से 1884: भारत के वैचारिक पुनर्जागरण का काल

1858 से 1884 का कालखंड भारत की स्वतंत्रता चेतना के पुनर्गठन, आध्यात्मिक पुनरुद्धार और वैचारिक क्रांति का वह अद्वितीय समय था, जब तलवारें थम चुकी थीं, परंतु विचारों की मशालें जल उठी थीं। 1857 की क्रान्ति की असफलता के पश्चात् अंग्रेज़ों ने प्रतिशोध की भीषण लहर चलाई-मुग़ल सम्राज्य का औपचारिक अंत कर भारत को सीधे ब्रिटिश क्राउन की सत्ता में विलीन कर दिया गया। परन्तु भारतीय आत्मा पराजित नहीं हुई। इसी दौर में राष्ट्रवाद के बीज और अधिक गहराई से धरती में समा गए।

स्वामी दयानन्द सरस्वती, जो उस समय मथुरा में अपने गुरु स्वामी विरजानन्द से व्याकरण और वैदिक ज्ञान की शिक्षा ग्रहण कर रहे थे, साथ ही भारत की आत्मा की पीड़ा को अनुभव करते हुए, अपने गुरु के साथ निरंतर मंत्रणा कर, वे देश में भावी क्रांतियों की नींव रख रहे थे। 1863 में, गुरु की आज्ञा से वे सन्यास ग्रहण कर राष्ट्र को वैदिक चेतना से पुनः जीवित करने हेतु निकल पड़े। उन्होंने केवल प्रवचन नहीं दिए, उन्होंने भारत को वैदिक धर्म, स्वाभिमान और स्वराज्य के सूत्र में बांधने का कार्य किया।

1875 में, उनकी दूरदर्शिता और त्यागपूर्ण तपस्या से आर्य समाज की स्थापना हुई- एक ऐसा संगठन जिसने केवल धार्मिक सुधार नहीं किया, बल्कि सामाजिक पुनरुत्थान और राष्ट्रप्रेम की लौ जन-जन में प्रज्वलित की। उन्होंने क्रान्तिकारियों की एक पूरी पीढ़ी को वैचारिक और आत्मिक बल प्रदान किया—श्यामजी कृष्ण वर्मा, लाला लाजपत राय, स्वामी श्रद्धानन्द, पं. लेखराम, गुरुदत्त विद्यार्थी, सरदार अर्जुन सिंह, महात्मा हंसराज जैसे सैकड़ों राष्ट्रनिष्ठ युवाओं को संगठित किया, जिन्होंने आगे चलकर स्वतंत्रता संग्राम की अग्रिम पंक्ति संभाली।

"इसीलिए 1879 में, स्वामी दयानन्द सरस्वती ने अपनी क्रान्तदर्शिता और दूरदर्शिता का परिचय देते हुए अपने परम शिष्य श्यामजी कृष्ण वर्मा को इंग्लैंड भेजा, ताकि वह विदेशी धरती पर बैठकर भारत की स्वतंत्रता के लिए वैचारिक संघर्ष का सूत्रपात कर सके।" यह निर्णय केवल एक शिष्य को विदेश भेजने का नहीं था, बल्कि एक राष्ट्रऋषि द्वारा वैश्विक मंच पर भारत की स्वतन्त्रता के बीज बोने की रणनीति थी- जिसका फल आगे चलकर इंडिया हाउस, लंदन से प्रकाशित पत्र 'Indian Sociologist', और वीर सावरकर जैसे युवा क्रान्तिकारियों के संगठित आंदोलन के रूप में सामने आया।

इसी काल में बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय ने 1882-83 के बीच "वन्दे मातरम्" जैसे राष्ट्रगीत की रचना की, जो भारत के हृदय की पहली संगठित ध्वनि बनी। इस युग में प्रेस, साहित्य, शिक्षा और सभाओं के माध्यम से विचारों की ऐसी क्रांति आरंभ हुई, जिसने अंग्रेजों की बौद्धिक सत्ता को चुनौती दी।

1883 का इल्बर्ट बिल विवाद, जिसमें भारतीय न्यायाधीशों को अंग्रेज अधिकारियों पर मुकदमा चलाने का अधिकार देने से इंकार किया गया, ने शिक्षित भारतीयों में तीव्र असंतोष और राष्ट्रीय चेतना को और तेज कर दिया। और इसी क्रम में 1884 तक आते-आते भारत एक वैचारिक संगठित क्रांति के लिए तैयार हो चुका था।

यह काल केवल इतिहास का एक पुलिंदा नहीं, बल्कि वह मौन गर्जना था, जिसमें तलवारों की जगह विचार, मंत्र और संगठन ने लिया। यही वह नींव बनी, जिस पर भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस (1885) जैसे संगठनों का जन्म हुआ। यह समय क्रान्ति के दूसरे अध्याय का उद्घोष था- जहाँ गुप्त क्रांति से वैचारिक आंदोलन की ओर भारत बढ़ चला था।