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"सभी वैदिक ग्रंथों की रचना संस्कृत भाषा में है, इसलिए आपको संस्कृत भाषा अवश्य पढ़नी चाहिए, जिससे जब कोई विधर्मी हमारे धर्म और संस्कृति के प्रति, अनर्गल बातें या शास्त्रों में मिलावट करे, तो उसकी पहचान कर हम उसका मुँह तोड़ उत्तर दे सकें"

जब अंग्रेजों द्वारा देश से गुरुकुल शिक्षा पद्धति और सनातन परंपरा को नष्ट-भ्रष्ट करने का षड़यंत्र रचा जा रहा था, तब उन्हीं परम्पराओं को जीवित रखने हेतु महर्षि दयानन्द सरस्वती ने देश के युवाओं को स्वभाषा, स्वसंस्कृति एवं स्वधर्म के प्रति जागरूक किया...

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"स्वराज और स्वधर्म की लड़ाई रुकने के लिए आरम्भ नहीं हुई, ये तब तक चलेगी, जब तक भारत स्वतंत्र न हो जाए... स्वतंत्रता कोई सपना नहीं, एक संकल्प है, हमारा लक्ष्य कल भी स्वराज था और आज भी स्वराज है"

१८५७ क्रांति के पश्चात् महर्षि दयानन्द सरस्वती कई छोटे-बड़े राजे-रजवाड़ों से मिले और उन्हें स्वदेशी राज्य के सर्वोत्तम एवं सर्वोपरि होने के सत्य से परिचित कराकर, अंग्रेजों के विरुद्ध उनके कर्तव्य से न केवल अवगत कराया, बल्कि उनके अन्दर स्वदेश-प्रेम की भावना का बीज भी बोया...

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"अंग्रेजों के घोषणा रुपी जाल में फँसकर भोले-भाले लोग, देश के प्रति अपने कर्तव्यों को भूल न जाएं, अतः लक्ष्य की प्राप्ति तक तुम्हें स्वराज्य की लड़ाई लड़नी ही होगी"

१८५७ की क्रांति के पश्चात् अंग्रेजों ने तात्या टोपे को फाँसी पर लटका दिया किन्तु वह घटना अंग्रेजों को भ्रमित करने वाली घटना बन गई... क्योंकि उसी के पश्चात् मेरठ में तात्या टोपे महर्षि दयानन्द सरस्वती से भेंट करते हैं, जहाँ उन्होंने तात्या टोपे को देश की स्वतंत्रता के लिए अंतिम सांस तक लड़ने की प्रेरणा दी...

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"झाँसी को अंग्रेजों के हाथों में जाने से बचाना ही होगा, तुम एक वीरांगना हो, एक क्षत्राणी का यही धर्म है... तुम्हारा पराक्रम, स्वराज की लड़ाई लड़ रहे लोगों के लिए प्रेरणास्रोत बनेगा"

जब अंग्रेजों ने राज्य हड़प नीति के अंतर्गत झाँसी को अपने अधीन करने का निश्चय किया, तब महारानी लक्ष्मीबाई ने १८५५ में कुंभ के अवसर पर हरिद्वार स्थित नील पर्वत पर झांसी को बचाने हेतु महर्षि दयानंद जी से मार्गदर्शन प्राप्त करते हुए....

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"मेरे जीवन के दो मुख्य प्रयोजन हैं... एक स्वधर्म की रक्षा और दूसरा स्वराज की प्राप्ति, जब तक भारत भूमि को विदेशी आक्रान्ताओं से मुक्त नहीं करा लूँगा तब तक चैन से नहीं बैठूंगा"

देश पर विदेशियों की कुदृष्टि और भारत की दशा को देखकर सन् १८५५ में महर्षि दयानन्द सरस्वती ने भारत भूमि को विदेशी आक्रान्ताओं से मुक्त कराने का संकल्प लिया...

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"यदि राष्ट्र पर कोई संकट आता है, तो हम सभी के लिए राष्ट्रधर्म सर्वोपरि होना चाहिए... फिर चाहे वह किसी भी मत या संप्रदाय का क्यों न हो"

भारतीय संस्कृति और सभ्यता को नष्ट-भ्रष्ट करने के ब्रिटिश षडयंत्र को पहचानते हुए महर्षि दयानन्द सरस्वती ने १८५५ कुंभ मेले में गंगा तट पर साधु समाज को सचेत करते हुए कहा...

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"यदि आप चाहते हैं कि आने वाली पीढ़ियाँ अपने साहित्य के वास्तविक स्वरूप को समझे, तो पहले उन्हें अपनी मातृभाषा और स्वसंस्कृति से प्रेम करना सिखाना ही होगा"

देश की स्वतंत्रता को लेकर चिंतित महर्षि दयानन्द सरस्वती अपनी हिमालय यात्रा के समय (सन् १८५६) बद्रीनाथ भी गये, जहाँ उनके विचारों से प्रेरित होकर बद्रीनाथ के महंत रावल जी ने उन्हें ब्रह्मकमल भेंट किया, जिसे कालांतर में महर्षि जी ने देश को एकता के सूत्र में पिरोने के लिए क्रान्ति चिन्ह के रूप में प्रयोग किया...

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"स्वतंन्त्रता का युद्ध कभी विफल नहीं होता... आप सब प्रयास करते रहें... देखना शीघ्र ही हम स्वतन्त्र भारत में सांस लेंगे"

अंग्रेजी सत्ता को जड़ से उखाड़ फेंकने के लिए सन् १८५६ गढ़मुक्तेश्वर में महर्षि दयानंद सरस्वती ने राजे-रजवाड़ों और भारतीय जन-समुदाय को कमल और रोटी के माध्यम से क्रान्ति के सन्देश को घर-घर तक पहुँचाकर उन्हें स्वराज्य प्राप्ति हेतु अंग्रेजों के विरुद्ध खड़ा किया...

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"किसी भी युद्ध को सेना और संसाधनों से नहीं, अपितु अदम्य साहस से जीता जाता है... आप अपने साथ ऐसे साहसी वीरों को जोड़ें, जो अपने राज्य की रक्षा के लिए, अंग्रेजों में भय पैदा कर सकें"

ईस्ट इंडिया कंपनी भारत में सैन्य छावनियों का विस्तार कर रही थी, उसी समय महर्षि जी सन् १८५६ गढ़मुक्तेश्वर में नाना साहब, तात्या टोपे, अजीमुल्लाह खान, कुँवर सिंह आदि अन्य राजाओं की अंग्रेजों की सैन्य छावनियों के मुख्य ठिकानों को दिखाकर अंग्रेजों के विरुद्ध क्रान्ति की योजनाओं को मूर्त रूप दे रहे थे...

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"जब राष्ट्र ही नहीं बचेगा, तो कौन-सा धर्म और कैसा भजन...? क्या भला राष्ट्र-धर्म से भी बड़ा कोई धर्म हो सकता है... ??"

जब पराधीनता की बेड़ियों में जकड़ा भारत देश अंग्रेजों के अत्याचार का दंश झेल रहा था तब महर्षि दयानन्द सरस्वती ने १८५५ के कुम्भ मेले में साधु-संन्यासियों में वैचारिक क्रान्ति का शंखनाद कर उन्हें स्वतंत्रता प्राप्ति के लिए जागृत करते हुए कहा...

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"आज मातृभूमि को युवा और साहसी वीरों की आवश्यकता है, जो भारत से ब्रिटिश राज्य को उखाड़ फेंकने के लिए आतुर हों"

नाना साहेब, तात्या टोपे, अजीमुल्लाह खान, कुँवर सिंह, राव तुलाराम आदि अनेक राजाओं के साथ मिलकर सन् १८५६, गढ़मुक्तेश्वर में महर्षि दयानन्द सरस्वती ने अंग्रेजों के विरुद्ध प्रथम स्वतंत्रता संग्राम का बिगुल बजाया...

1857 क्रांति

ईस्ट इंडिया कंपनी

1857 की क्रान्ति भारतीय इतिहास का वह महान पल था, जब पूरे देश ने पहली बार विदेशी सत्ता के विरुद्ध एकजुट होकर हुंकार भरी। यह केवल सैनिकों का विद्रोह नहीं, बल्कि आस्था, आत्मसम्मान और राष्ट्रचेतना का संगठित विस्फोट था। कारतूसों में गाय-सूअर की चरबी, जबरन धर्मांतरण और सांस्कृतिक अपमान ने जन-जन में आक्रोश भरा, जिसे भारतीय संतों, राजाओं, किसानों और आम जनता ने मिलकर एक महासंग्राम में बदल दिया।
1857 की क्रान्ति में स्वामी दयानन्द सरस्वती का योगदान केवल वैचारिक नहीं, अपितु संगठनात्मक और प्रेरणात्मक रूप से भी अत्यंत महत्वपूर्ण था। वे उस आध्यात्मिक परंपरा के ध्वजवाहक थे, जिसने साधु-संन्यासियों, अखाड़ों और राष्ट्रप्रेमी संतों को एक अदृश्य लेकिन शक्तिशाली चेतना में जोड़ा। संन्यास दीक्षा लेने के दौरान ही उन्होंने स्वामी पूर्णानंद जी से राष्ट्रधर्म का बीज ग्रहण किया, जिसे उन्होंने हरिद्वार, मेरठ, झाँसी, कानपुर और अन्य स्थानों पर जाकर वैदिक धर्म-रक्षा और राजनीतिक स्वतंत्रता के विचार से सींचा। स्वामी दयानन्द ने "धर्म-रक्षा ही राष्ट्र-रक्षा" का मंत्र देकर नवाबों, राजाओं, वीरांगनाओं और साधु-सैनिकों को एक सूत्र में बाँधा और 1855 की क्रान्तिकारी सभाओं में गुप्त योजनाओं को मूर्त रूप दिया। उनका योगदान इस बात का प्रमाण है कि 1857 की क्रान्ति केवल तलवारों की नहीं, बल्कि विचारों, मंत्रों और आत्मबल की क्रान्ति थी, जिसमें स्वामी दयानन्द एक अग्रदूत थे।

भारतीय सामाजिक ढांचा

1857 जब भारत जागा – 1857 की आध्यात्मिक चिंगारी

1857 का विद्रोह केवल एक सैनिक बगावत नहीं था। यह एक लंबी, गहरी और संयोजित चेतना का विस्फोट था-एक ऐसा आह्वान जो साधु-संतों की गुफाओं से, आश्रमों से, खेतों की मिट्टी और मेलों की भीड़ से उठकर रणभूमि की हुंकार में बदल गया। इस चिंगारी को प्रज्वलित करने वाले चार योगी-संन्यासी थे-स्वामी ओमानन्द, स्वामी पूर्णानन्द, स्वामी विरजानन्द, और स्वामी दयानन्द। हिमालय से लेकर कनखल, मथुरा से लेकर झांसी तक इन चारों ने न केवल संत-समाज को जोड़ा, बल्कि नवाबों, राजाओं और योद्धाओं को भी धर्म और राष्ट्र की रक्षा के लिए एकत्र किया।

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1857 की आत्मा: धर्म से राष्ट्र तक

यह क्रांति धर्म के बहाने नहीं, धर्म के संरक्षण से शुरू हुई थी। ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी ने जब भारत की आस्था पर हमला शुरू किया—चरबी वाले कारतूस, धर्मांतरण, चर्चों का प्रसार—तब संतों ने सबसे पहले आवाज़ बुलंद की। हरिद्वार के कुम्भ में, 1855 की शुरुआत में, स्वामी ओमानन्द की सभा में पहली बार कमल और चपातियों का गुप्त प्रतीक सामने आया—जो बाद में पूरे देश में क्रांति का संदेश बना।

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1. हरिद्वार (1855) –

स्वामी ओमानन्द की अध्यक्षता में: हरिद्वार कुम्भ मेले के अवसर पर हजारों राष्ट्रभक्तों की उपस्थिति में, जिनमें नाना साहेब, अज़ीमुल्ला खान, तांत्या टोपे, कुंवर सिंह, और बाबा शाहमल जैसे क्रांतिकारी शामिल थे। यहीं कमल-चपाती की योजना बनी।

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2. गढ़गंगा (अक्टूबर 1855) –

स्वामी पूर्णानन्द के नेतृत्व में हिन्दू-मुस्लिम संतों की साझा रणनीति बनी। उपस्थित: 2,500 से अधिक।

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3. हरिद्वार पर्वतीय सभा (अक्टूबर 1855) –

565 साधुओं व सभी सम्प्रदायों के संतों का महासंगम। यही था क्रांति का आध्यात्मिक महामंत्र!

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संन्यासियों की राष्ट्रधर्म यात्रा

स्वामी दयानन्द अकेले नहीं थे—वह एक परंपरा के वाहक थे। उनके गुरु विरजानन्द, और उनसे पहले पूर्णानन्द और ओमानन्द—इन चार सन्यासी योद्धाओं ने जन-जन तक राष्ट्र का मर्म पहुँचाया। Mathura, Kanpur, Delhi, Prayag—हर स्थान में साधु-वृंद, वैद्य, कवि, गायक, मौलवी, पण्डितों ने घर-घर जाकर क्रांति की आग जगाई। दसनामी अखाड़े—परम्परागत शस्त्रधारी साधुओं ने बंदूकों के बदले त्रिशूल और तलवारों से लड़ाई लड़ी। सैनिक छावनियाँ—अंदर घुसकर प्रचार करने वाले साधु और फकीरों को पकड़कर अंग्रेजों ने फाँसी दे दी, लेकिन फिर भी क्रान्ति का संदेश रुकने के बजाय बढ़ने लगा।

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धार्मिक एकता: सनातन परंपरा की साझी हुंकार

जब लखनऊ की गलियों में अंग्रेजी सेना लौटी, तो दीवारों पर क्रांतिकारी पोस्टर और घोषणाएँ चिपकी थीं—"धर्म के लिए मरो, जाति के लिए जियो।" उर्दू पत्र दुर्बीन, हिंदी समाचार सुधाकर और अंग्रेज़ी Friend of India—सभी ने मान लिया कि धर्म खतरे में है, और इस चेतना ने हिन्दू सनातन एकता को मजबूत किया।

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नायक जो इतिहास ने भुला दिए

दास बाबा – 125 वर्षीय दसनामी संत, जिन्होंने नाना साहेब के साथ विद्रोह की योजना बनाई। साईं फखरुद्दीन – सूफ़ी संत, जिनकी हिन्दू संतों से मित्रता ने अद्भुत साझेदारी को जन्म दिया। महमूद शाह, मदी शाह, हसन अब्बास – गुरु विरजानन्द के मुस्लिम शिष्य, जो वीरता और निष्ठा के प्रतीक बने।

उपसंहार: जब धर्म और राष्ट्र एक हो जाएं...

“यह क्रांति मन्त्रों और मंत्रणा की थी, बन्दूकें और तलवारें तो केवल उसकी छाया थीं।” 1857 की यह कहानी बंदूकों की नहीं, मन्त्रों और मंत्रणा की है। यह उस विराट परंपरा की गाथा है जिसमें सन्यासियों ने देश को माँ समझा, धर्म को आत्मा और राष्ट्र को उसका शरीर। “जब तक भारत का साधु जागा, तब तक भारत जागा, उठ खड़ा हुआ। जब गुरुकुल से मंत्र गूंजें, तब तक अंग्रेजों का सिंहासन डोलने लगा।”

१८५७ से १८५८ की क्रान्ति : घटनाक्रम

१८५७ की क्रान्ति कोई आकस्मिक विस्फोट नहीं थी, बल्कि इसकी नींव वर्षों पहले रखी जा चुकी थी। सन १८५५ में हरिद्वार, गढ़गंगा और पर्वतीय अंचलों में संतों, फकीरों और अखाड़ों की गुप्त सभाएँ हुईं। चार महान वैदिक संन्यासियों - स्वामी ओमानंद, स्वामी पूर्णानंद, स्वामी विरजानंद और स्वामी दयानंद - के नेतृत्व में एक अदृश्य क्रान्तिकारी चेतना पनप रही थी। कमल और चपाती जैसे प्रतीकों के माध्यम से क्रान्ति का संदेश गाँव-गाँव पहुँचाया गया। कुम्भ मेलों, मंदिरों, और धार्मिक आयोजनों को जनजागरण का केंद्र बनाया गया, जिससे सामान्य जनता, फकीर, वैद्य, किसान, स्त्रियाँ और साधु सब एक विराट राष्ट्रधर्म की भावना से जाग्रत हुए।

२९ मार्च १८५७ को बैरकपुर में मंगल पांडे द्वारा ब्रिटिश अधिकारी पर गोली चलाना उस सन्नाटे में पहली गर्जना थी, जिसने औपनिवेशिक सत्ता को चेताया कि अब भारतीय असंतोष हथियार उठाने को तत्पर है। यह विद्रोह हालांकि स्थानीय रूप से दबा दिया गया, परन्तु इसकी चिंगारी बुझी नहीं—वह आग बनने वाली थी।

१० मई १८५७ को मेरठ में भारतीय सैनिकों ने खुले विद्रोह की घोषणा कर दी। जेलें तोड़ी गईं, अधिकारियों पर हमले हुए और फिर क्रान्तिकारी सैनिक दिल्ली की ओर कूच कर गए। वहाँ बहादुरशाह ज़फ़र को भारत का सम्राट घोषित किया गया, जिसने इस संघर्ष को "राष्ट्र-स्वराज्य" का वैधानिक रूप प्रदान कर दिया। इसके साथ ही यह विद्रोह मेरठ से लेकर दिल्ली, कानपुर, लखनऊ, झाँसी, ग्वालियर, फैज़ाबाद, बरेली, इलाहाबाद और मथुरा तक फैल गया। सभी दिशाओं में, धार्मिक नेताओं, साधु-संन्यासियों, सैनिकों और नागरिकों ने एक स्वर में स्वतंत्रता का आह्वान किया।

कानपुर में नाना साहिब ने अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ युद्ध की अगुवाई की, जबकि झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई ने अपनी तलवार से संकल्प लिया कि “मैं अपनी झाँसी नहीं दूँगी।” लखनऊ में बेगम हज़रत महल ने नवाबी शासन के पतन के बाद भी ब्रिटिश सत्ता के सामने समर्पण नहीं किया। इस समय संन्यासी सेनाओं और दसनामी अखाड़ों के शस्त्रधारी साधु मोर्चे पर उतरे, तो गाँवों में फकीर और कीर्तनकार क्रान्तिकारी संदेश फैलाने लगे।

अंग्रेज़ों ने जुलाई १८५७ से जबरदस्त दमन का अभियान चलाया। सितम्बर में दिल्ली को घेरकर भारी गोलीबारी की गई। १४ सितम्बर को दिल्ली पर पुनः कब्ज़ा कर लिया गया और बहादुरशाह ज़फ़र को बंदी बनाकर रंगून भेज दिया गया। हालांकि राजधानी गिरी, परन्तु विद्रोह की भावना नहीं मिटी। झाँसी की रानी ने मार्च १८५८ में अंग्रेज़ी सेनाओं के विरुद्ध युद्ध करते हुए अपना जीवन बलिदान कर दिया। उनके बलिदान ने समूचे भारत को झकझोर दिया।

१८५८ में तात्या टोपे ने गुरिल्ला युद्ध की नीति अपनाकर अंग्रेज़ों को महीनों तक छकाया, परंतु अंततः विश्वासघात के कारण गिरफ़्तार हुए और १८ अप्रैल १८५९ को फाँसी दे दी गई। लेकिन इसकी सच्चाई आपको १८५७ डायरी फिल्म की स्टोरी देखकर पता चलेगी। जहाँ क्रान्ति की आग को धीरे-धीरे दबाया जा रहा था, वहीं दूसरी और स्वामी दयानन्द जी द्वारा क्रान्ति के बीज भारतीय जनमानस में रोपित किये जा रहे थे।

इस प्रकार १८५७–१८५८ की क्रान्ति न केवल भारत के पहले संगठित स्वातंत्र्य संग्राम के रूप में इतिहास में दर्ज हुई, बल्कि यह प्रमाणित कर गई कि जब तक भारत की भूमि पर तपस्वी, वीर स्त्रियाँ, साधु और जाग्रत जनमानस मौजूद रहेगा, तब तक विदेशी सत्ता की नींव डगमगाती रहेगी। यह क्रान्ति हारते हुए भी आत्मा से जीती और भारत को स्वराज्य के मार्ग पर अग्रसर कर गई।