1884 से 1905 का काल भारत के स्वतंत्रता संग्राम का वह दौर था, जब गुप्त चेतना एक जनचेतना में परिवर्तित होने लगी और वैचारिक आंदोलनों से संगठित क्रान्ति की नींव पक्की होने लगी। 1885 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना हुई, यह कोई आकस्मिक घटना नहीं, बल्कि 1857 से जली क्रान्ति की ज्वाला और स्वामी दयानन्द जैसे राष्ट्रऋषियों द्वारा बोए गए बीजों का स्वाभाविक फल था। प्रारंभ में कांग्रेस एक संवाद मंच की तरह कार्य कर रही थी, परंतु बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय के “वन्दे मातरम्” गीत और आनंदमठ जैसे उपन्यासों ने जनमानस में राष्ट्रभक्ति की चेतना को गहराई से स्थापित किया।
इसी काल में स्वामी विवेकानन्द ने 1893 में शिकागो विश्व धर्म महासभा में भारत की आध्यात्मिक गरिमा का उद्घोष किया और युवा भारत को “उठो, जागो और लक्ष्य प्राप्ति तक रुको मत” जैसे संदेश दिए। उनका योगदान केवल आध्यात्मिक नहीं, बल्कि सांस्कृतिक और राष्ट्रचेतना को दिशा देने वाला था। दूसरी ओर बाल गंगाधर तिलक ने "स्वराज्य मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है" का उद्घोष करते हुए गणेशोत्सव और शिवाजी महोत्सव जैसे सांस्कृतिक आयोजनों को जन-जागरण के माध्यम में बदला।
दूसरी ओर स्वामी दयानन्द की आज्ञा से सपत्नीक लन्दन गए श्यामजी कृष्ण वर्मा निरंतर इंडिया हॉउस से क्रान्तिकारी गतिविधियों को बढ़ा रहे थे। वह न केवल लन्दन स्थित भारतीय छात्रों में देश की स्वतंत्रता के बीज बो रहे थे बल्कि विदेशी धरती से भारतीय क्रांतिकारियों का आर्थिक सहयोग और विचारों से निरंतर उत्साह बढ़ा रहे थे।
1897 में चापेकर बंधुओं द्वारा पुणे में प्लेग कमीशन के अत्याचारी अधिकारी कर्नल रैंड की हत्या क्रान्तिकारी आतंकवाद की शुरुआत मानी जाती है, जिसने नवयुवकों को प्रतिरोध की राह दिखाई। 1903 में सावरकर, 1904 में अभिनव भारत, और अन्य गुप्त संगठनों की स्थापना हुई, जो शस्त्र क्रान्ति के लिए युवाओं को प्रशिक्षण देने लगे। उधर, बंगाल में 1905 के बंग-भंग की प्रस्तावना ने एक भीषण राष्ट्रव्यापी विरोध को जन्म दिया, जिसने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम को वैचारिक से सीधे जनक्रांति के पथ पर ला खड़ा किया।
यह युग स्वामी दयानन्द की वैदिक मशाल, विवेकानन्द की आत्मिक प्रेरणा और तिलक - सावरकर जैसे नायकों की साहसिक उद्घोषणा का युग था- जिसमें भारत जाग रहा था, विचार गरज रहे थे, और स्वतन्त्रता अब केवल स्वप्न नहीं, लक्ष्य बन चुकी थी।