लॉर्ड कर्ज़न द्वारा किया गया बंगाल विभाजन ब्रिटिश ‘फूट डालो और राज करो’ नीति का स्पष्ट प्रतीक था। इसने भारतीय जनमानस को झकझोर दिया। 1905 में बंगाल विभाजन ने भारत की राष्ट्रीय एकता को गहरा आघात पहुँचाया, परन्तु इसके विरोध में फूटा स्वदेशी आंदोलन, देशव्यापी जनजागरण की पहली निर्णायक लहर बना।
इसी समय, आर्य समाज की शाखाएँ, गुरुकुल कांगड़ी, और DAV संस्थान — अब केवल शिक्षा केंद्र नहीं रह गए थे, बल्कि राष्ट्र निर्माण और बलिदान की प्रयोगशालाएँ बन चुके थे, जहाँ विद्यार्थियों को आधुनिक शिक्षा के साथ-साथ वेद और 'सत्यार्थ प्रकाश' से राष्ट्रभक्ति की दीक्षा दी जाती थी।
1907 में कांग्रेस का गरम और नरम दल में विभाजन हुआ — जहाँ एक ओर तिलक, लाजपत राय और बिपिन चंद्र पाल जैसे नेता खुलकर ब्रिटिश सत्ता को चुनौती देने लगे, वहीं दूसरी ओर श्यामजी कृष्ण वर्मा ने लंदन में इंडिया हाउस के माध्यम से भारत से जुड़े युवाओं की क्रान्तिकारी चेतना को संगठित किया।
श्यामजी कृष्ण वर्मा द्वारा स्थापित ‘इंडिया हाउस’, क्रांतिकारी भारतीय युवाओं का केंद्र बन गया। यहीं से प्रशिक्षित मदनलाल ढींगरा ने कर्ज़न वायली की हत्या कर यह सिद्ध कर दिया कि भारतीय क्रांतिकारी विदेशों में भी सक्रिय हैं।
उसी समय 'Indian Sociologist' पत्रिका आर्य समाज से प्रेरित विचारों को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्रचारित कर रही थी। अंग्रेज़ी शासन के प्रतिबंधों के बावजूद वर्मा ने जिनेवा में वेद से क्रांति तक की वैचारिक मशाल जलाए रखी।
1917 का चंपारण आंदोलन तथा 1919 का जलियांवाला बाग हत्याकांड स्वतंत्रता संघर्ष को गाँव-गाँव तक ले गए। स्वामी श्रद्धानन्द, जो महर्षि दयानन्द के शिष्य थे, न केवल गुरुकुल इन्द्रप्रस्थ से युवाओं को प्रशिक्षित कर रहे थे, बल्कि कांग्रेस और गांधी जी के आंदोलनों में वैचारिक दृढ़ता का संचार भी कर रहे थे।
ब्रिटिश अफसर जनरल डायर द्वारा निहत्थे नागरिकों पर की गई निर्मम गोलीबारी ने भारत को झकझोर दिया। इसी समय स्वामी श्रद्धानन्द पंजाब व उत्तर भारत में जनजागरण और सांस्कृतिक पुनरुत्थान की अलख जगा रहे थे।
1920 में असहयोग आंदोलन शुरू हुआ, जिसमें आर्य समाज से जुड़े गुरुकुलों और DAV संस्थानों ने सरकारी शिक्षा का बहिष्कार कर स्वदेशी शिक्षा मॉडल को बल दिया।
गांधीजी ने खिलाफत आंदोलन और जलियांवाला कांड के विरोध में अंग्रेजों से असहयोग का आह्वान किया। स्कूल, कोर्ट, नौकरी सबका बहिष्कार हुआ। इस आंदोलन में आर्य समाज के गुरुकुलों और DAV स्कूलों की भूमिका महत्त्वपूर्ण रही, जिन्होंने छात्रों में देशभक्ति भर दी।
रामप्रसाद बिस्मिल, अशफाक उल्ला खान और उनके साथियों ने ब्रिटिश ट्रेन से खजाना लूटकर शस्त्र क्रांति की नींव रखी। इस क्रांति की जड़ें आर्य समाज के विचार, सत्यार्थ प्रकाश, और गुरुकुल शिक्षा में थीं।
साइमन कमीशन का विरोध करते हुए लाठीचार्ज में घायल लाला लाजपत राय का बलिदान, क्रांतिकारियों के लिए चुनौती बन गया। भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव ने सांडर्स की हत्या कर इसका बदला लिया और युवा क्रांति की घोषणा की।
8 अप्रैल 1929 को भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त ने केंद्रीय असेम्बली में ‘बहरों को सुनाने के लिए बम फेंका’। उन्होंने आत्मसमर्पण कर अपने विचारों को पूरे देश तक पहुँचाया। उनकी प्रेरणा में स्वामी दयानन्द की लेखनी, वैदिक घोष और क्रांतिक प्रतिज्ञाएँ स्पष्ट थीं।
महात्मा गांधी ने नमक कानून तोड़ने के माध्यम से अंग्रेज़ी शासन की जड़ें हिलाईं। यह आंदोलन पूरे देश में फैल गया और इसमें गाँवों, स्त्रियों, किसानों और विद्यार्थियों की विशाल भागीदारी हुई। आर्य समाज की शाखाएँ भी इस आंदोलन में सक्रिय रूप से जुड़ीं।